सूरज ढलते ही छाई वो शाम,
हर कोने में बस गया उसका नाम।
नर्म सी हवा, खामोश फिज़ा,
जैसे कह रही हो कोई दास्तां।
क्षितिज पर रंगों का खेल था बसा,
सिंदूरी बादलों ने चित्र सा रचा।
चिड़ियों का चहकना धीमा पड़ गया,
मानो शाम ने उन्हें भी मौन कर दिया।

रास्ते पे चलते वो शांत कदम,
दूर कहीं मंदिर की घंटियों का सुरम ।
सागर की लहरें किनारों को चूमतीं,
शाम के संग अपनी धुन गुनगुनातीं।
दिल को सुकून, मन को आराम,
जादुई थी वो पलकों की शाम।
हर अंधेरे में छुपी थी रौशनी,
जैसे हर दुख के बाद हो ख़ुशी।
इस शाम की गहराई को बस जी लो,
खुद से मिलो, खुद को पी लो।
क्योंकि हर शाम एक नयी सीख देती,
ज़िंदगी को बस यूं ही संजीदगी से बुनती।