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माँ की ममता से राष्ट्रपति भवन तक: द्रौपदी मुर्मू की भावनात्मक यात्रा

"माँ की ममता से राष्ट्रपति भवन तक: द्रौपदी मुर्मू की भावनात्मक यात्रा" प्रस्तावना: देश की प्रथम नागरिक, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा लिखा गया यह विशेष लेख 'माँ' के त्याग, प्रेम और ममता को समर्पित है। यह लेख न केवल एक व्यक्तिगत अनुभव है, बल्कि यह समाज के उन अनगिनत माताओं को भी श्रद्धांजलि है, जिनके बलिदान और संस्कारों के कारण संतानें ऊँचाइयों तक पहुँचती हैं। 'मेरा अस्तित्व, व्यक्तित्व, परिचय... सब माँ की देन' शीर्षक के माध्यम से उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि जीवन में जो कुछ भी उन्होंने पाया है, उसकी नींव उनकी माँ ने रखी। माँ की सीखें: बचपन से राष्ट्रपति भवन तक द्रौपदी मुर्मू अपने लेख में बताती हैं कि बचपन में कोई भी महत्वपूर्ण या गूढ़ सवाल जब घर आता था, तो बच्चे-बच्चियाँ माँ से ही पूछते थे। माँ का व्यवहार, उनका काम करने का तरीका, उनकी संवेदनशीलता और धैर्य—इन सबने ही बच्चों के भीतर सोचने, समझने और निर्णय लेने की क्षमता विकसित की। यही कारण है कि राष्ट्रपति बनने जैसी महान जिम्मेदारी निभाते हुए भी वे आज खुद को अपनी माँ के संस्कारों से जुड़ा हुआ महसूस करती हैं। संस्कारों की नींव: आदिवासी समाज की विशेषता इस लेख में वे स्पष्ट करती हैं कि उनका पालन-पोषण एक साधारण आदिवासी समाज में हुआ, जहाँ साधनों की कमी थी लेकिन जीवन मूल्यों की कोई कमी नहीं थी। माँ ने कड़ी मेहनत, आत्मनिर्भरता और सामूहिक सहयोग जैसे जीवन दर्शन सिखाए। वे बताती हैं कि कैसे उनकी माँ खेतों में काम करते हुए भी अपनी बेटियों की पढ़ाई पर विशेष ध्यान देती थीं। नारी शिक्षा का महत्व राष्ट्रपति मुर्मू यह भी साझा करती हैं कि कैसे उनके गाँव में लड़कियों की शिक्षा को उतना महत्व नहीं दिया जाता था, परंतु उनकी माँ ने इस सामाजिक सोच को चुनौती दी और उन्हें पढ़ाया-लिखाया। यह निर्णय उनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण मोड़ बना। आज जब वे भारत की राष्ट्रपति हैं, तो वे माँ के उसी निर्णय को सबसे बड़ी प्रेरणा मानती हैं। गरीबी में भी आत्मसम्मान की शिक्षा वे यह भी लिखती हैं कि माँ ने कभी भी परिस्थितियों के आगे हार नहीं मानी। गरीबी में भी आत्मसम्मान बनाए रखा। उनका कहना है कि माँ ने यह सिखाया कि मदद माँगने से बेहतर है कि खुद पर भरोसा रखा जाए और मेहनत से आगे बढ़ा जाए। समाज और राष्ट्र निर्माण में माँ की भूमिका द्रौपदी मुर्मू यह मानती हैं कि किसी भी समाज और राष्ट्र की नींव माँ की गोद में ही रखी जाती है। एक माँ ही सबसे पहला स्कूल होती है। उन्होंने अपने लेख में बताया कि कैसे आज़ादी के 75 वर्षों के बाद भी माँ की भूमिका समाज निर्माण में सर्वोपरि बनी हुई है। मातृत्व और नेतृत्व का संगम यह लेख मातृत्व और नेतृत्व के बीच के गहरे संबंध को भी उजागर करता है। राष्ट्रपति मुर्मू बताती हैं कि माँ ने उन्हें सिर्फ स्त्री धर्म ही नहीं, बल्कि नेतृत्व के मूल तत्व भी सिखाए—जैसे धैर्य, सब्र, करुणा, न्याय और निर्णय लेने की क्षमता। ‘नारी सशक्तिकरण 2.0’ की नींव माँ के आँचल से लेख में उन्होंने उल्लेख किया कि आज देश में ‘नारी सशक्तिकरण 2.0’ की बात हो रही है, परंतु इसकी नींव तो माँ के आँचल में ही रही है। वे माँ को ही पहली नेता, पहली शिक्षिका और पहली मार्गदर्शिका मानती हैं। समापन: माँ की पूजा, सिर्फ एक दिन नहीं राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का लेख केवल एक भावनात्मक संस्मरण नहीं है, बल्कि यह एक राष्ट्रीय संदेश भी है। वे इस लेख के माध्यम से यह कहना चाहती हैं कि माँ की पूजा केवल 'मदर्स डे' जैसे एक दिन तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि हर दिन उनके योगदान को स्मरण किया जाना चाहिए। निष्कर्ष: माँ का आँचल—संस्कारों की पाठशाला इस भावनात्मक लेख से यह स्पष्ट होता है कि द्रौपदी मुर्मू जैसी ऊँचाई पर पहुँचने वाली महिला भी अपने व्यक्त

प्रस्तावना:

देश की प्रथम नागरिक, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा लिखा गया यह विशेष लेख ‘माँ’ के त्याग, प्रेम और ममता को समर्पित है। यह लेख न केवल एक व्यक्तिगत अनुभव है, बल्कि यह समाज के उन अनगिनत माताओं को भी श्रद्धांजलि है, जिनके बलिदान और संस्कारों के कारण संतानें ऊँचाइयों तक पहुँचती हैं। ‘मेरा अस्तित्व, व्यक्तित्व, परिचय… सब माँ की देन’ शीर्षक के माध्यम से उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि जीवन में जो कुछ भी उन्होंने पाया है, उसकी नींव उनकी माँ ने रखी।

माँ की सीखें: बचपन से राष्ट्रपति भवन तक

द्रौपदी मुर्मू अपने लेख में बताती हैं कि बचपन में कोई भी महत्वपूर्ण या गूढ़ सवाल जब घर आता था, तो बच्चे-बच्चियाँ माँ से ही पूछते थे। माँ का व्यवहार, उनका काम करने का तरीका, उनकी संवेदनशीलता और धैर्य—इन सबने ही बच्चों के भीतर सोचने, समझने और निर्णय लेने की क्षमता विकसित की। यही कारण है कि राष्ट्रपति बनने जैसी महान जिम्मेदारी निभाते हुए भी वे आज खुद को अपनी माँ के संस्कारों से जुड़ा हुआ महसूस करती हैं।

संस्कारों की नींव: आदिवासी समाज की विशेषता

इस लेख में वे स्पष्ट करती हैं कि उनका पालन-पोषण एक साधारण आदिवासी समाज में हुआ, जहाँ साधनों की कमी थी लेकिन जीवन मूल्यों की कोई कमी नहीं थी। माँ ने कड़ी मेहनत, आत्मनिर्भरता और सामूहिक सहयोग जैसे जीवन दर्शन सिखाए। वे बताती हैं कि कैसे उनकी माँ खेतों में काम करते हुए भी अपनी बेटियों की पढ़ाई पर विशेष ध्यान देती थीं।

नारी शिक्षा का महत्व

राष्ट्रपति मुर्मू यह भी साझा करती हैं कि कैसे उनके गाँव में लड़कियों की शिक्षा को उतना महत्व नहीं दिया जाता था, परंतु उनकी माँ ने इस सामाजिक सोच को चुनौती दी और उन्हें पढ़ाया-लिखाया। यह निर्णय उनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण मोड़ बना। आज जब वे भारत की राष्ट्रपति हैं, तो वे माँ के उसी निर्णय को सबसे बड़ी प्रेरणा मानती हैं।

गरीबी में भी आत्मसम्मान की शिक्षा

वे यह भी लिखती हैं कि माँ ने कभी भी परिस्थितियों के आगे हार नहीं मानी। गरीबी में भी आत्मसम्मान बनाए रखा। उनका कहना है कि माँ ने यह सिखाया कि मदद माँगने से बेहतर है कि खुद पर भरोसा रखा जाए और मेहनत से आगे बढ़ा जाए।

समाज और राष्ट्र निर्माण में माँ की भूमिका

द्रौपदी मुर्मू यह मानती हैं कि किसी भी समाज और राष्ट्र की नींव माँ की गोद में ही रखी जाती है। एक माँ ही सबसे पहला स्कूल होती है। उन्होंने अपने लेख में बताया कि कैसे आज़ादी के 75 वर्षों के बाद भी माँ की भूमिका समाज निर्माण में सर्वोपरि बनी हुई है।

मातृत्व और नेतृत्व का संगम

यह लेख मातृत्व और नेतृत्व के बीच के गहरे संबंध को भी उजागर करता है। राष्ट्रपति मुर्मू बताती हैं कि माँ ने उन्हें सिर्फ स्त्री धर्म ही नहीं, बल्कि नेतृत्व के मूल तत्व भी सिखाए—जैसे धैर्य, सब्र, करुणा, न्याय और निर्णय लेने की क्षमता।

‘नारी सशक्तिकरण 2.0’ की नींव माँ के आँचल से

लेख में उन्होंने उल्लेख किया कि आज देश में ‘नारी सशक्तिकरण 2.0’ की बात हो रही है, परंतु इसकी नींव तो माँ के आँचल में ही रही है। वे माँ को ही पहली नेता, पहली शिक्षिका और पहली मार्गदर्शिका मानती हैं।

समापन: माँ की पूजा, सिर्फ एक दिन नहीं

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का लेख केवल एक भावनात्मक संस्मरण नहीं है, बल्कि यह एक राष्ट्रीय संदेश भी है। वे इस लेख के माध्यम से यह कहना चाहती हैं कि माँ की पूजा केवल ‘मदर्स डे’ जैसे एक दिन तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि हर दिन उनके योगदान को स्मरण किया जाना चाहिए।

निष्कर्ष: माँ का आँचल—संस्कारों की पाठशाला

इस भावनात्मक लेख से यह स्पष्ट होता है कि द्रौपदी मुर्मू जैसी ऊँचाई पर पहुँचने वाली महिला भी अपने व्यक्त

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