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“समर शेष है” रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की कविता काम करने के घंटों पर बहस के संदर्भ में बेहद प्रासंगिक है।

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की कविता काम करने के घंटों पर बहस के संदर्भ में बेहद प्रासंगिक है। उनकी कविता कुछ इस प्रकार है:

“समर शेष है”

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध,

जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध।

सूर्य, चंद्र को छिपने का कष्ट नहीं सहना होगा,

धृतराष्ट्र के घर जाकर यह दृश्य नहीं रहना होगा।

वृक अधम नरभक्षी होंगे निर्मूल नश्वर भू पर,

अब कुत्ता-सम्राट, श्वानों का साम्राज्य नहीं होगा।

समर शेष है, अभी मनुज भक्षक हो मनुज नारा;

समर शेष है, अभी मुनि पर जाने का भय सारा।

अभी धर्म के नाम शेष है शोषण का व्यापार,

अभी मनुष्यता बिकी हुई है नारों के बाजार।

समर शेष है, तिलक-तराजू-तलवार पुराने हैं,

समर शेष है, गीता के गुणज्ञ और ज्ञानी हैं।

निज औघड़पन का व्याख्यान, मात्र मनोरंजन का ध्यान,

जीवन का पथ सहज-संकेत, कर्मण्येवाधिकारस्ते।

—इस कविता में ‘दिनकर’ जी ने कर्म, समय, और समाज की अन्यायपूर्ण संरचना पर तीखी टिप्पणी की है। यह कविता आज के दौर में भी प्रासंगिक है, जब काम और समय पर सवाल उठ रहे हैं।

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