बिलकुल, नीचे दिया गया है एक क्रिएटिव, भावनात्मक, और प्रभावशाली ब्रेकिंग न्यूज़ आर्टिकल, जो शिव विधानसभा के परिसीमन विवाद को केंद्र में रखते हुए लिखा गया है। यह लेख सामाजिक, राजनीतिक, भौगोलिक और भावनात्मक पहलुओं को जोड़कर तैयार किया गया है, जो न सिर्फ पाठकों को झकझोरेगा बल्कि सत्ता से सवाल भी पूछेगा।
“बीजेपी ने जब वफ़ादारी न खरीदी, तो नफरत उगाने लगी – और अब, पंचायतों के नाम पर बंटवारे की राजनीति…”
बाड़मेर | शिव विधानसभा
रेगिस्तान की रेत में उठी यह आंधी सिर्फ धूल नहीं उड़ाती—यह सियासत की इमारतें हिला देती है। और इस बार, आंधी उठी है बीजेपी सरकार के उस फैसले से, जिसमें सलमान खान और रविन्द्र सिंह भाटी जैसे जननायकों की पैतृक ग्राम पंचायतों को काटकर गडरा रोड़ पंचायत समिति से अलग कर दिया गया।
शिव की राजनीति में ये फैसला केवल एक नक्शे की लकीर नहीं, बल्कि राजनीतिक बदले की वह तलवार है जो थार के दो सबसे प्रभावशाली नेताओं की जड़ों पर चली है।
देताणी से दूर, सलमान का दिल टूटा – “ये मेरे दादाजी की मिट्टी है”
सलमान खान, पूर्व मंत्री अमीन खान के पोते और गडरा रोड़ पंचायत समिति के प्रधान, जब इस फैसले की खबर सुनी, तो उनकी आंखों में हैरानी से ज्यादा दर्द था। उनकी पैतृक ग्राम पंचायत देताणी को रामसर में जोड़ दिया गया है—एक ऐसा कदम जिसे न तो स्थानीय लोगों ने मांगा, न कभी अपेक्षा की।
“मेरे दादाजी ने जहां खून-पसीना बहाकर राजनीति की, वही गांव अब हमसे छीन लिया गया। ये फैसला मेरे खून से जड़े रिश्तों को मिटाने की कोशिश है,” सलमान ने नज़रों में आंसू छिपाते हुए कहा।
दुधोड़ा टूटा, भाटी फूटा – “ये मेरे लोगों की बेइज्जती है”
रविन्द्र सिंह भाटी, शिव विधानसभा के स्वतंत्र विधायक, और अब लोकसभा चुनाव में बाड़मेर-जैसलमेर से निर्दलीय उम्मीदवार, तो इस फैसले से तमतमा गए हैं। उनकी ग्राम पंचायत दुधोड़ा, जो उनके समर्थन का मजबूत किला मानी जाती थी, अब गडरा रोड से हटाकर रामसर पंचायत समिति में डाल दी गई है।
“ये सिर्फ भूगोल नहीं बदला गया, मेरी आवाज़ को दबाने की कोशिश है। सरकार को लगा कि मुझे लोगों से अलग कर देंगे, तो मेरा असर खत्म हो जाएगा। लेकिन वो भूल रहे हैं कि रिश्ते पंचायत समिति से नहीं, दिलों से जुड़े होते हैं।”
“वोट नहीं दिया? तो भुगतो!” – सियासत का नया फॉर्मूला?
भाटी के करीबियों का कहना है कि यह बदलाव उनके द्वारा बीजेपी को समर्थन न देने की सीधी सज़ा है। “सरकार को खटकता है कि एक निर्दलीय विधायक इतनी ताकत रखता है। और अब जब भाटी लोकसभा में भी उतर गए, तो सत्ता में बैठे लोगों ने सोचा – तोड़ दो उसके गांव, ताकि उसकी ताकत भी टूट जाए।”
हरसाणी, तिबिनीयार, फोगेरा, तानु मानजी, मगरा – एक-एक कर इन गांवों को अलग-अलग पंचायत समितियों में फेंक दिया गया है, जैसे कोई साजिशन पत्तों की गड्डी फाड़ दी हो।
रेत की पुकार: “जिन्हें मिटाने चले हैं, वो तूफ़ान बनेंगे!”
गांवों में आक्रोश का आलम यह है कि चाय की टपरी से लेकर खेतों की मेड़ों तक, एक ही आवाज़ गूंज रही है—“अब बस बहुत हुआ!”
एक बुज़ुर्ग किसान बोले, “बीजेपी को लगता है, गांव तोड़ देंगे तो दिल भी टूट जाएंगे। लेकिन ये थार की रेत है बेटा, जितना दबाओगे, उतना उछलेगा!”
जनता की हुंकार: “अब वक्त है सलमान-भाटी एक साथ उठें!”
अब सवाल यही है कि क्या ये दोनों नेता अपनी व्यक्तिगत राजनीति से ऊपर उठकर जनता की आवाज़ बनेंगे?
क्या सलमान खान अपने पूर्वजों की धरती के लिए जनआंदोलन छेड़ेंगे?
क्या रविन्द्र भाटी अपनी बेबाक़ आवाज़ को इस ‘भूगोल के बंटवारे’ के खिलाफ बुलंद करेंगे?
जनता चीख-चीखकर कह रही है –
“जागो सलमान, जागो भाटी! अगर अब भी नहीं बोले, तो ये सियासी राक्षस तुम्हारी आत्मा को भी निगल जाएगा।”
परिसीमन या प्रपंच?
सरकार का दावा है कि यह “प्रशासनिक सुविधा” के लिए किया गया कदम है।
लेकिन स्थानीय लोग पूछ रहे हैं –
“अगर सुविधा की बात थी, तो चुने हुए नेताओं के गांव ही क्यों बदले? क्यों उन्हीं पंचायतों को तोड़ा गया, जो सरकार की नीतियों के खिलाफ आवाज़ उठाती हैं?”
यह सवाल अब सिर्फ परिसीमन का नहीं, बल्कि जन-आस्था और लोकतंत्र की आत्मा का बन चुका है।
अब जनता की बारी: पंचायत का जवाब वोट से
जनता समझ रही है कि जब सरकार जवाबदेह नहीं होती, तो वोट ही सबसे बड़ा हथियार होता है।
गांवों में अब यह संकल्प लिया जा रहा है –
“अगर हमारी पंचायतें छीनी गईं, तो हम वोट से सरकार छीन लेंगे।”
थार की चेतावनी: “अगर यथावत नहीं रखा, तो सत्ता की नींव हिला देंगे!”
सवाल अब यह नहीं कि पंचायत कहां है, सवाल यह है कि जनता कहां खड़ी है।
और आज, बाड़मेर की मिट्टी से आवाज़ उठ रही है –
“हमारे गांव लौटाओ, वरना कुर्सी ले जाओ!”
थार के शेरों से अब यही उम्मीद है—सोचो नहीं, उठो!
यह रेत सिर्फ इतिहास नहीं बनाती, ये सियासत का नक्शा भी बदल देती है।