नई दिल्ली: बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व को लेकर हाल ही में भाजपा के केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का बयान आया था। 16 दिसंबर को एक टीवी चैनल के कार्यक्रम में शाह ने नीतीश के नेतृत्व को लेकर टिप्पणी की थी, जिसके बाद सियासी हलकों में हलचल मच गई। इसके बाद संसद में शाह ने अंबेडकर को लेकर एक बयान दिया, जिसे आम आदमी पार्टी के संयोजक और दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने नीतीश कुमार को पत्र लिखकर आलोचना की थी। इसके कुछ समय बाद नीतीश कुमार अचानक अस्वस्थ हो गए, जिसके बाद से उनकी चुप्पी पर कई सवाल उठ रहे हैं।
इन घटनाक्रमों के बाद भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप जायसवाल ने यह बयान दिया कि नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही बिहार में आगामी चुनाव लड़ा जाएगा, लेकिन इस बयान के बाद उन्होंने पलटते हुए केंद्रीय नेतृत्व के फैसले पर बात की। भाजपा की कोर कमेटी ने दिल्ली में एक बैठक आयोजित की और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के 8 जनवरी को बिहार आने का भी संकेत दिया। इन घटनाओं के बीच नीतीश कुमार की खामोशी ने बिहार की राजनीति में नए बदलाव की आहट को जन्म दिया है।
नीतीश कुमार के पाले बदलने के कयास
हालांकि नीतीश कुमार के एनडीए छोड़ने की अटकलें लगाई जा रही हैं, लेकिन इस दिशा में कदम उठाना उनके लिए आसान नहीं होगा। यह उनके कई करीबी नेताओं के बयान और घटनाओं से स्पष्ट होता है। जेडीयू के कार्यकारी राष्ट्रीय अध्यक्ष संजय झा ने हाल ही में अमित शाह के अंबेडकर पर दिए बयान का समर्थन किया। वहीं, केंद्रीय मंत्री राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह और जेडीयू के सांसद देवेश चंद्र ठाकुर ने भी भाजपा की भाषा का समर्थन किया, जो भाजपा के साथ उनके रिश्तों की गहरी जड़ को दिखाता है।
नीतीश कुमार को यह भलीभांति समझ में आता है कि भाजपा उनकी सबसे बड़ी सहयोगी रही है और उन्होंने समय-समय पर भाजपा के साथ रिश्ते मजबूत किए हैं। भाजपा की तरफ से उन्हें हमेशा सम्मान मिला है, भले ही उन्होंने कुछ अवसरों पर भाजपा से दूरी बनाई हो। इस तथ्य को देखते हुए नीतीश के लिए एनडीए छोड़ना एक बड़ा जोखिम हो सकता है, खासकर जब उनकी पार्टी की स्थिति अब उतनी मजबूत नहीं रही।
‘इंडिया’ में सीएम पद की तंगी
एक और बड़ी बाधा यह है कि अगर नीतीश कुमार एनडीए से अलग होते हैं, तो उनका ठिकाना ‘इंडिया’ गठबंधन ही हो सकता है, लेकिन वहां भी सीएम पद के लिए पहले से ही तेजस्वी यादव खड़े हैं। तेजस्वी के लिए मुख्यमंत्री बनने का रास्ता अब और भी कठिन हो गया है, और नीतीश को यह अच्छी तरह समझ में आता है कि इस गठबंधन में सीएम पद के लिए जगह बनाना मुश्किल है। तेजस्वी यादव ने पिछली बार सीएम पद का सपना देखा था, लेकिन उसे पूरा करने में उन्हें कोई सफलता नहीं मिली, और अब नीतीश को खुद यह सोचने की जरूरत है कि क्या ‘इंडिया’ में उनके लिए कोई सम्मानजनक स्थान है।
नीतीश कुमार की मजबूरी
हालांकि नीतीश कुमार के पास अभी भी मुख्यमंत्री बनने की ताकत है, लेकिन उन्हें यह भी अहसास होगा कि भाजपा के साथ रहते हुए उनके लिए यह ज्यादा आसान होगा। अगर वे एनडीए से अलग होते हैं, तो उनके पास न तो पर्याप्त विधायक हैं और न ही कोई मजबूत गठबंधन, जो सरकार बना सके। बिहार की वर्तमान राजनीतिक स्थिति में जेडीयू के पास मात्र 43 विधायक हैं, और अगर वे सरकार से हटते हैं, तो कोई अन्य दल या गठबंधन बिहार में सरकार बनाने की स्थिति में नहीं होगा।
नीतीश कुमार की राजनीति के उत्थान के समय से लेकर अब तक 2020 को उनका सबसे बुरा साल माना जाता है, जब उनकी पार्टी को बड़ा नुकसान हुआ था। लेकिन इसके बावजूद नीतीश कुमार की सियासी अहमियत खत्म नहीं हुई है। उन्होंने पहले भी भाजपा के साथ अपने रिश्ते में उथल-पुथल देखी है, लेकिन अंततः उन्हें भाजपा से सहयोग मिला।
निष्कर्ष
अगर नीतीश कुमार एनडीए छोड़ने का फैसला करते हैं, तो यह बिहार की राजनीति में एक बड़ा बदलाव साबित हो सकता है, लेकिन यह उनके लिए आसान नहीं होगा। भाजपा के साथ उनके रिश्ते मजबूत हैं और जेडीयू के अंदर भी कई लोग भाजपा के पक्ष में बोल रहे हैं। इस सियासी माहौल में नीतीश कुमार का पाला बदलना आसान नहीं होगा, और शायद उन्हें अपने भविष्य के लिए और भी सोच-समझकर कदम उठाने होंगे।